दक्षिण-पश्चिम मानसून 2025 की उन घटनाओं में सबसे अहम खबर यही है कि “अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी में मानसून को समर्थन देने वाली ऊपरी वायवीय प्रणालियाँ कमजोर हुई हैं।” इस एक वाक्य ने किसानों से लेकर शहरी इलाकों के निवासियों तक में हलचल मचा दी है। इस लेख में हम बिना किसी क्रमबद्ध अंकन के, आकर्षक और SEO-फ्रेंडली तरीके से जानेंगे कि आखिर ये ऊपरी वायवीय प्रणालियाँ क्या होती हैं, वे क्यों कमजोर हो गईं, 2025 के मानसून पर इसका क्या असर हो सकता है और हमारी ज़िंदगी में इसके क्या मायने बनते हैं।
मानसून की भूमिका और भारत के लिये इसकी अहमियत
भारत में मानसून का आगमन जून की शुरुआत में होता है, और यह सितंबर के मध्य तक चलता है। इस दौरान अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के ऊपर बनती वायवीय प्रणालियाँ नमी लेकर आती हैं, जिससे किसान अपनी फसलों को पानी दे पाते हैं, नदियाँ उफान पर आती हैं, तालाब भरते हैं और बिजली उत्पादन के धागे मज़बूत होते हैं। पूर्व-पक्षीय राज्यों में बिछे सघन नाले-नालेजे के जाल से मानसून की बूंदें खेतों तक पहुंचती हैं और चावल, गन्ना, मक्का जैसी खरीफ फ़सलें लहलहाती हैं।
इस प्रक्रिया में अरब सागर से उठी नमी पूर्व की ओर बंगाल की खाड़ी की ओर बढ़ती है और वहाँ कम दबाव का क्षेत्र (Low Pressure Area) बनाता है। यह कम दबाव का क्षेत्र आगे बढ़ते-बढ़ते हिंदुस्तान में कमर कसता है और बारिश के मेघ बिखेर देता है। इस पूरे चक्र के पीछे मुख्य ज़िम्मेदार ऊपरी वायवीय प्रणालियाँ होती हैं, जिन्हें हम ‘ट्रॉपोपॉज़’ या विशिष्ट तकनीकी भाषा में ‘मॉन्सून ट्रफलोन’ भी कह सकते हैं।
ऊपरी वायवीय प्रणालियाँ: क्या हैं और क्यों जरूरी हैं
ऊपरी वायवीय प्रणालियाँ वास्तव में वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में कभी-कभी दशकों-दशकों तक स्थिर रहने वाली लयबद्ध वायु धाराएँ होती हैं। ये धाराएं अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के ऊपर बने कम दबाव के स्थानों से लिपटी अपनी ऊर्जा को भीतर तक लेकर आती हैं। इस ऊपरी लेयर (जो करीब 10–12 किमी ऊँचाई पर होती है) का सहारा लेकर जल वाष्प नीचे की ओर धकेला जाता है, जिससे लगातार बारिश की प्रक्रिया चलती रहती है।
जब ये वायवीय धाराएँ पूरी ताकत से काम करती हैं, तो दक्षिण-पश्चिम मानसून एक राजा की तरह पूरे भारत पर राज करता है। लेकिन यदि यह शक्ति किसी कारण से कमजोर हो जाए, तो मानसून का आगमन या वितरण असंतुलित होता है। खेतों में पानी की कमी, नदियों में पानी का कम बहाव, सिंचाई योजनाओं पर असर, भूजल स्तर में गिरावट और यहां तक कि बिजली उत्पादन में कमी तक देखी जा सकती है।
मानसून कमजोर क्यों हुआ: मौसम विभाग की राय
वर्तमान रिपोर्ट (मई के अंत तक के डेटा के आधार पर) के अनुसार नवंबर-दिसंबर 2024 में पश्चिमी राजस्थान और पंजाब क्षेत्र में असामान्य रूप से गर्मी रही। इसके साथ ही, अरब सागर में ऊपरी वायवीय प्रणाली के लिए जरूरी निम्न दबाव वाले क्षेत्रों का निर्माण नहीं हो पाया। बंगाल की खाड़ी की ओर से आने वाली नमी भी कमजोर हो गई थी। वैज्ञानिकों का मानना है कि इन दोनों समुद्री हिस्सों में लॉजिकली ‘फीड’ यानी नमी का प्रवाह कम होने से पूरे मानसून चक्र में रिक्तता रह गई।
इसी के साथ पश्चिमी रूस में हाई प्रेशर सिस्टम ने एशिया के ऊपर शुष्क और गर्म हवा भेजी। इस वजह से शुष्क हवा भारतीय वायुमंडल में नीचे तक उतरती रही, जिसने मूसलाधार बारिश की जगह खामोशी भरी सूखी गर्म लहरें पहुंचाई। इन परिस्थितियों ने अरब सागर-खाड़ी दोनों तरफ की ट्रॉफ लाइनों को कमजोर कर दिया। मौसम विज्ञानियों को उम्मीद थी कि सामान्य तापमान और समुद्री सतह के आयाम संतुलित रहेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
2025 के मानसून पर असर: देरी और वितरित बरसात
इस साल मानसून केवल औपचारिक रूप से 29 मई से भारत में दाखिल हुआ, लेकिन सामान्य आरंभ तिथि के बाद भी बारिश अपेक्षा के मुताबिक़ नहीं फैली। जून के पहले सप्ताह तक महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में हल्की-फुल्की बूंदाबांदी तो हुई, लेकिन मध्य भारत तक बारिश नहीं पहुंचे पाए। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा में भले ही तेज़ गर्मी चरम पर रही, लेकिन पिछले सालों की तरह मानसून का असर वहाँ तक नहीं पहुंचा।
पूर्वी भारत में भी बंगाल की खाड़ी के ऊपर आवश्यक कम दबाव वाले सिस्टम बनने में देरी हुई। इस वजह से झारखंड, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे कृषि प्रधान राज्यों में खरीफ फसलों की रोपाई प्रभावित हुई। किसान खेत जोतने के बाद पानी की व्यवस्था करने में असमर्थ रहे, क्योंकि सिंचाई जलस्तर में गिरावट आ गई थी।
यहां तक कि उत्तर-पूर्व के राज्यों – जैसे असम, मेघालय, मणिपुर – में भी मानसून देरी से पहुंचा। हालाँकि असम में जून के मध्य से भारी बारिश ने बाढ़ जैसा स्वरूप ले लिया, लेकिन वह भी असामान्य तरीके से बंगाल की खाड़ी के कमज़ोर ट्रॉफ के कारण दक्षिणी ओर से आया। इस तरह से पूरे देश में मानसून बदले हुए अंदाज़ में देखा गया: कहीं-कहीं थोड़ी देर से, कहीं-कहीं कम तीव्रता से और कहीं पर अचानक बाढ़ जैसी स्थिति।
भारत की कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रभाव
भारत में कृषि जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा मानसून पर निर्भर करता है। इस साल की देरी और कमजोर बारिश ने किसान समुदाय में चिंता पैदा कर दी है। पश्चिमी भारत की फार्मिंग—महाराष्ट्र के दुबई जैसी मिर्ची के खेत हों या गुजरात के तिलहन क्षेत्र—तेजी से पानी की कमी का सामना कर रहे हैं। खरीफ फसलों के लिए खेत तैयार किए तो थे, लेकिन जब पानी नहीं पहुंचा, तो कई किसानों ने रोपाई के बाद दोबारा या पूरा सीजन छोड़ने का जोखिम उठाना पड़ा।
पश्चिम बंगाल और ओडिशा में, जहां कृषि तंत्र बंगाली जल निकासी प्रणालियों पर निर्भर करता है, वहाँ भी फसल जैसे चावल, मक्का, साबूदाना की बुआई प्रभावित हुई। इस वजह से उत्तर प्रदेश के गन्ना और धान किसान भी चिंता में हैं। सिंचाई योजनाएँ तो चल रही हैं, लेकिन वे केवल आंशिक राहत दे पा रही हैं। सरकार ने किसानों के बीज बीमा कॉरपोरेशन को सतर्क रहने को कहा है, क्योंकि सूखे से प्रभावित फसलों के लिए मुआवजे की संभावना बननी शुरू हो गई है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जब खाद्य पदार्थों का उत्पादन घटेगा, तो वह न केवल किसान की जेब पर असर डालेगा बल्कि उपभोक्ता स्तर पर रसोई की थाली पर भी बढ़ती कीमतों के रूप में दिखेगा। बिचौलियों ने तो पहले से ही बाजार में धान व दाल की कटाई के बाद की क़ीमतें बढ़ा दी हैं, क्योंकि सप्लाई की कमी की अटकलें तेज़ हो गई हैं।
शहरी इलाकों में अनिश्चित मौसम का परिणाम
शहरी क्षेत्रों में भी मानसून का समय एक तरह से जीवन-मरण का समय होता है। जब बारिश समय पर न हो, तो गर्मी बढ़ जाती है: दिल्ली-एनसीआर की सड़कों पर धूल उड़ने लगती है, लू-तरंगनियाँ छाई रहती हैं और बिजली की खपत बढ़ जाती है। इस साल जून के दूसरे सप्ताह तक दिल्ली में औसत तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के पार रहा, जबकि आमतौर पर इस समय में 35–36 डिग्री पर कंट्रोल रहता।
मुंबई जैसे समुद्री शहर में तो जून के पहले दो सप्ताह तक लू-सी स्थिति बनी रही। लोग ऊँची इमारतों की रेत से भरी साइकिल सड़कें और ट्रैफिक जाम का फायदा उठाते हुए वहाँ बैठी स्ट्रीट फूड की ठेलियों के नीचे शांति से एयर कंडीशनिंग वाले कमरों में छिपे रहे। पर जब मानसून अचानक टुकड़ों-टुकड़ों में पहुँचा तो रस्ते जलमग्न हो गए, कूड़ा-कर्कट बह निकला और एक दिन में ही गुजराती थाली से मुंबईवाड़े वड़ा पाव तक सब कुछ गीला हो गया। इस तरह शहरी लेआउट में भी प्लानिंग के फेर बदल दिखे, जैसे कहीं पर जल निकासी की समस्याएँ जोर पकड़ गईं।
पर्यावरणीय और बाढ़-चक्र पर भी बहुआयामी असर
जब बंगाल की खाड़ी में कम दबाव के स्थानों का निर्माण देर से होता है, तो पूर्वोत्तर भारत में अचानक बाढ़ की स्थिति बन सकती है। असम में जून के मध्य से जलस्तर इतना बढ़ गया कि स्थानीय प्रशासन को राहत शिविरों में लोगों को शिफ्ट करना पड़ा। इस बार चाय बागान के आस-पास के इलाक़ों में भी पानी घुस गया, जिससे चाय पत्ती की गुणवत्ता पर असर पड़ने लगा।
राजकीय राहत कार्यों में गुणवत्तापरक देरी का असर भी देखा गया। सीमित संसाधनों के चलते नाव और हेलीकॉप्टर से बचाव कार्य किए गए, लेकिन हाथ-पांव में जूझती स्थानीय टीमों के भरोसे ये ऑपरेशन चल रहे थे। नदी किनारे बसे गाँवों में चारे का संकट भी बढ़ा क्योंकि पेड़-पौधे डूब कर नष्ट हो गए।
गैजट या ऑनलाइन न्यूज़ अपडेट से यह स्पष्ट हो रहा था कि मानसून कमजोर हुआ तो केवल बरसात ही प्रभावित नहीं हुई, बल्कि बाढ़-चक्र का समयरेखा भी गड़बड़ा गया। इस वजह से कई सामाजिक-आर्थिक योजनाएँ (Supplementary Irrigation) और नदियों पर बने बांधों की आपातकालीन सतर्कता भी दिन-रात जारी रही।
जलीय इन्फ्रास्ट्रक्चर और प्रशासनिक चुनौतियाँ
बिहार, झारखंड, बंगाल और असम जैसे राज्यों के जल निकासी तंत्र पर आवाजाही बिछी रहती है। जब मानसून देरी से आता है, तो कुछ घंटों की जलगति में अचानक भारी बारिश ने सड़कें उखाड़ कर रख दीं, पानी लील गया और अव्यवस्थित जल निकासी ने शहरों में तबाही फैलाई। पटना में हाल ही में नए बनाए गए पक्के नालों के बावजूद नगर निगम को अचानक अचानक अत्यधिक जलभराव का सामना करना पड़ा।
महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र में पहले शांत समुद्र किनारे की सुकून भरी तस्वीर थी, लेकिन 2025 के मानसून के चलते वहाँ भी रिंग रोड जलमग्न हुई। प्रशासन को आपातकालीन जल निकासी यंत्रों को चालू रखना पड़ा।
केरल में हालांकि इस साल मानसून अपेक्षा के मुताबिक स्थिर था, लेकिन उत्तर-पश्चिमी हिस्सों की तुलना में यह भी कुछ अलग था: बारिश कम तीव्र थी और बाढ़ के बजाय जलजमाव (waterlogging) ही अधिक देखने को मिला। शहरों में नालियों की सफाई नहीं होने से कीचड़ का संकट बढ़ गया।
समाधान और तैयारी: किसानों, प्रशासन और आम जनता के लिए सुझाव
किसानों के पास विकल्प सीमित हैं, लेकिन फिर भी वे थोड़ी तैयारी करके नुकसान कम कर सकते हैं। उन्नत किस्म के बीज और ड्रिप इरिगेशन (Drip Irrigation) का उपयोग बढ़ाना चाहिए। इससे नमी का स्तर बनाए रखने में आसानी होगी। किसान संगठनों और कृषि विश्वविद्यालयों को मिलकर इस साल धीमे मानसून के अनुकूल ‘Alternate Cropping Pattern’ सुझाने चाहिए – जैसे कम पानी वाली बाजरा, ज्वार या दलहन की किस्में।
राज्य सरकारों को भी अपनी सिंचाई योजनाओं में छिटपुटता कम करना होगा। निजी वाटर टैंकर इकाईयों तथा जल हाशिए (Water Harvesting) को ज़ोर देकर किसानों को गहरी नल-योजनाएँ उपलब्ध करवानी चाहिए। छोटे चेकडैम (Check Dams) बनाकर जल संग्रहण को गतिशील रखना होगा।
शहरी इलाकों में नगर निगम को जलनिकासी तंत्र (Sewerage System) और ड्रेनेज नेटवर्क पर नजर बनाए रखनी चाहिए। मानसून सक्रिय होते ही सार्वजनिक घोषणाएँ करके नागरिकों को जागरूक किया जाए कि वे प्लास्टिक या कूड़ा सीढ़ियों में न फेंकें, ताकि नालियाँ जाम न हों। गटर, नालियाँ और नदियों के तटों के आसपास वृक्षारोपण अभियान से भी जमीन की नमी बनी रहेगी।
राज्य और केंद्र सरकार को मृदा संरक्षण (Soil Conservation) तथा जल प्रबंधन (Water Management) पर दीर्घकालिक नीतियाँ बनानी होंगी। तकनीकी दृष्टि से ‘मानसून मॉनिटरिंग सिस्टम’ (Remote Sensing and Satellite Data) को और मज़बूत करना होगा, ताकि शुरुआती संकेत मिलते ही मौसम की दिशा का सही पूर्वानुमान किया जा सके।
व्यक्तिगत सावधानियाँ और दैनिक जीवन में असर
जब मानसून कमजोर हो, तो हमें व्यक्तिगत तौर पर भी कुछ तैयारियाँ करनी चाहिए। अपने घर के आसपास जलजमाव की समस्या को पहचानें। यदि छत या छज्जे पर पानी जमा हो रहा है, तो उसे तुरंत खाली करवाएं। बालकनी में या गमलों में कूलर आदि उपकरणों के पास पानी जमा न होने दें, नहीं तो मच्छर-विषाणुओं का संक्रमण फैल सकता है।
अगर आपको यात्रा करनी है, तो लोकल मौसम अपडेट और न्यूज़ ऐप्स नियमित रूप से देखें। अचानक बाढ़ या भारी बारिश के अलर्ट मिलने पर ट्रैफिक जाम या सड़कों के बंद होने की स्थिति से बच कर, वैकल्पिक रास्ता चुनें। निश्चित करें कि आपका आपातकालीन किट (Emergency Kit) तैयार हो: पानी, बिस्कुट, फर्स्ट एड किट, मोबाइल चार्जर पावरबैंक आदि।
कई बार शहरी इलाकों में तेज़ गर्मी और उमस बढ़ जाती है, जिससे एलर्जी, अस्थमा या हृदय रोगियों को परेशानी होती है। ऐसे में घर के अंदर एयर कंडीशनिंग या कूलर चालू रखें, लेकिन अगर बिजली कटौती होती है, तो कूलर मशीनों के आसपास अतिरिक्त पानी रखकर तापमान को नियंत्रित किया जा सकता है।
भविष्य की चुनौतियाँ और दीर्घकालिक रास्ते
मौसम विज्ञानियों का अनुमान है कि ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) और समुद्री सतह के तापमान में वृद्धि से लंबे समय में अरब सागर और बंगाल की खाड़ी दोनों में मौसमी चक्र स्वयं को रीशेप करेंगे। यह किसी एक साल की घटना नहीं होगी, बल्कि सतत् प्रक्रिया बनकर उभरेगी। इस परिस्थिति में बड़े बाढ़ चक्र और सूखे चक्र दोनों देखने को मिलेंगे।
सरकार को शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में बेदाग जल प्रबंधन नीतियाँ लागू करनी होंगी। ऐतिहासिक आंकड़ों का विश्लेषण करके यह निर्धारित करना होगा कि किन क्षेत्रों में सूखे का अधिक खतरा है और किन क्षेत्रों में फ्लड प्रोननेस (Flood-Prone) की समस्या बढ़ती जा रही है। इस आधार पर सूखा-सहायता योजनाएँ और बाढ़-रोधी परियोजनाएँ समय पर शुरू की जानी चाहिए।
क्षेत्रीय मौसम केंद्रों को सैटेलाइट डाटा और रडार (Doppler Radar) उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ाना होगा। इसके साथ ही स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं (NGOs) को प्रशिक्षित करके उन्हें शुरुआती चेतावनी जारी करने के लिए शामिल करना होगा।
प्लास्टिक प्रदूषण को रोककर जल-निकासी में सुधार लाना चाहिए। गांवों में ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ (Water Harvesting) और ‘ग्रेविटी बेस्ड इरिगेशन’ को प्रोत्साहित करना होगा। शहरी इलाकों में सोलर-पावर्ड वाटर-पंप (Solar-Powered Water Pumps) और ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ सिस्टम ज़ोर देकर लागू करने चाहिए।
इन सभी सवालों के जवाब खोजना इसलिए ज़रूरी है कि हर वर्ष हमारा मानसून ही हमारी रीढ़ की हड्डी होता है। अगर यह कमजोर हुआ, तो हमारी अर्थव्यवस्था, कृषि और सामान्य जीवन पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इस लेख में हमने जानने की कोशिश की कि यह “कमज़ोर ऊपरी वायवीय प्रणालियाँ” क्या हैं, क्यों कमजोर हुईं, 2025 के मानसून पर क्या असर हो सकता है, और आने वाले दिनों में हमें किन सवालों पर ध्यान देना चाहिए।
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