कबीर के ये 10 दोहे आपकी सोच बदल देंगे! | Kabir Ke Dohe With Meaning
1. **बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।**
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जब वे दुनिया में बुराई ढूँढने निकले, तो उन्हें कोई बुरा नहीं मिला। लेकिन जब उन्होंने अपने मन में झाँककर देखा, तो पाया कि सबसे बुरा वे खुद हैं। यह दोहा आत्म-अवलोकन और आत्मसुधार की शिक्षा देता है।
2. **माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि के, मन का मनका फेर।**
अर्थ: कबीर कहते हैं कि व्यक्ति माला (जपमाला) तो घुमाता रहता है, लेकिन उसका मन (चित्त) नहीं बदलता। वे सलाह देते हैं कि हाथ की माला छोड़कर मन के दोषों (मनका) को बदलो। यानी बाहरी आडंबर छोड़कर आंतरिक शुद्धि पर ध्यान देना चाहिए।
3. **दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।**
अर्थ: लोग दुख आने पर भगवान को याद करते हैं, लेकिन सुख में भूल जाते हैं। कबीर कहते हैं कि यदि सुख में भी ईश्वर का स्मरण किया जाए, तो दुख आएगा ही क्यों? यहाँ "सुमिरन" से तात्पर्य मन की एकाग्रता और ईश्वर-भक्ति से है।
4. **कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढत बन माहि।
ज्यों घटि-घटि राम है, दुनिया देखै नाहि।**
अर्थ: जिस प्रकार हिरण अपनी नाभि में स्थित कस्तूरी की खुशबू को पहचान नहीं पाता और पूरे जंगल में भटकता है, उसी तरह मनुष्य ईश्वर को बाहर ढूँढता है, जबकि वह उसके अपने हृदय में विद्यमान है।
5. **पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।**
अर्थ: कबीर कहते हैं कि लोग बड़ी-बड़ी किताबें पढ़कर भी ज्ञानी नहीं बन पाते। "ढाई आखर" (प्रेम) का सच्चा अर्थ समझ लेने वाला ही असली ज्ञानी है। यहाँ प्रेम से तात्पर्य ईश्वर-भक्ति और मानवता से है।
6. **तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखिन पड़े, पीर घनेरी होय।**
अर्थ: कभी भी किसी छोटे से तिनके को भी नीचा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि यदि वही तिनका उड़कर आँख में चला जाए, तो गहरी पीड़ा दे सकता है। यह दोहा विनम्रता और सभी के प्रति सम्मान की सीख देता है।
7. **जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।**
अर्थ: सज्जन व्यक्ति की जाति नहीं, बल्कि उसका ज्ञान पूछना चाहिए। जैसे तलवार की कीमत उसकी धार से होती है, म्यान (खोल) से नहीं। यह दोहा जाति-पाति के भेदभाव को नकारता है।
8. **निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी-साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।**
अर्थ: कबीर कहते हैं कि निंदा करने वालों को अपने पास रखो, क्योंकि वे बिना पानी-साबुन के ही (आलोचना के माध्यम से) तुम्हारे स्वभाव को शुद्ध कर देते हैं। यह आलोचना से सीख लेने का संदेश देता है।
9. **बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।**
अर्थ: केवल बड़ा (या धनी) होने से कोई लाभ नहीं, यदि आप दूसरों के काम न आ सको। जैसे खजूर का पेड़ ऊँचा तो होता है, लेकिन न तो उसकी छाया काम आती है और न ही उसके फल आसानी से मिलते हैं। यह समाज सेवा और विनम्रता का पाठ पढ़ाता है।